________________ (485 ) गुणों छिपाना, उसके अंदर जो दोष नहीं होते हैं उनका मी उसको दोषी बताना; अपने ही मुंहसे अपनी प्रशंसा करना; अपने अंदर गुण न होने पर भी उस गुण की ख्याति करना, निज दोषों को ढकना और जाति आदि का मद करना / इन बातों से विपरीत व्यवहार करना, गर्व नहीं करना / और मन, वचन काय से विनय करना / ये उच्च गोत्र के आस्रव हैं। ___ अन्तिम अन्तराय कर्म है। दूसरे के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय डालना अन्तराय कम के आस्रव हैं। ऊपर आठों कर्मों के आस्रवों का दिग्दर्शन कराया गया है / यथामति उनको मनमें धारण कर तदनुसार व्यवहार करना चाहिए / यद्यपि शुभास्रव भी अन्त में त्याज्य होते हैं तो भी उन्हें मोक्ष के हेतु समझ कर पूर्वाचार्योने उनको ग्रहण किया है; उनका आश्रय लिया है / इसलिए मोक्षामिलाषी जीवों को भी शुमास्रवों को मन, वचन और काम से ग्रहण करना चाहिए और अशुम को छोड़ना चाहिए / क्योंकि संसार का कारण आस्रव ही है।