________________ ( 535 ) तिथिपर्वोत्सवा सर्वे त्यक्ता येन महात्मना / अतिथिं तं विजानीयाच्छेशमभ्यागतं विदुः // इस श्लोक का अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है। साधुः सदाचारतः पाँच महाव्रत रूप सदाचार का पालन करना सदाचार है / जो इस सदाचार में लीन रहता है उसको साधु कहते हैं। और जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साधन में अशक्त होता है उसको दीन कहते हैं / इन तीनों की उचित रीती से भक्ति करना चाहिए। अन्यथा आचरण से अधर्म के बजाय अधर्म होनाने की संभावना रहती है। यानी पात्र को कुपात्र की पंक्ति में बिठाने से और कुपात्र को पात्र की पंक्ति में बिठाने से, धर्म करते धाड़ा-डाका पड़ने की संभावना है। देखिए नीतिकार क्या कहते हैं ? औचित्यमेकमेकत्र गुणानां कोटिमेकतः / विषायते गुणग्राम औचित्यपरिवर्जितः // भावार्थ-नीतिरूपी तराजू के दोनों पलड़ों में से एक में उचितता और दूसरे में करोड़ गुण रक्खो, फिर तराजू को उम्म कर देखो। तुम देखोगी कि उचिततावाला पलड़ा भारी है। अर्थात् करोड गुणों की अपेक्षा उचितता विशेष है। इसलिए पात्रानुसार पूजा करना ही उचित है। उचितता के विना करोडों गुणों का समूह भी विष के समान होता है / इसलिए अतिथि,