Book Title: Dharm Deshna
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 561
________________ (534 ) आधारो यस्त्रिलोक्या जलधिजलधरान्दवो यन्नियोज्या, भुज्यन्ते यत्प्रसादादसुरसुरनराधीश्व: संपदस्ताः / आदेश्या यस्य चिन्तामणिसुरसुरभिकामकुम्भादिभावाः श्रीमज्जैनेन्द्रधर्मः किशलयतु स वः शाश्वतीं सौख्यलक्ष्मीम् / भावार्थ-जो तीन लोक का आधार है। जिससे समुद्र, मेघ, चंद्र और सूर्यादि की मर्यादा है, जिसके कारण से मुक्नपति, वैमानिक, इन्द्र, नरेन्द्र, वासुदेव और चक्रवर्ती आदि की संपत्ति प्राप्त होती है और चिन्तामणि रत्न, देव और कामधेनु जिसके दास हैं, ऐसा जिनरान कथित धर्म हे भव्यजीवो ! तुम्हें शाश्वत मोक्षलक्ष्मी को देते / ऐसे धर्म का काम और अर्थ की बाधा में भी सेवन करना चाहिए। उन्नीसवाँ गुण। यथावदतिथौ साधौदीने च प्रतिपत्तिकृत / अर्थात् अतिथि साधु और दीनकी यथायोग्य भक्ति करना, मार्गानुसारी का उन्नीसवाँ गुण है / अतिथि साधु और दीनका वास्तविक स्वरूप जाने विना उनकी यथोचित भक्ति नहीं हो सकती, इसलिए उनके स्वरूप का वर्णन किया जाता है। निसनं तिथि और दीपोत्सवादि पर्ने का त्याग किया होता है वह अतिथि कहाता है। उनके अलावा दूसरे अभ्यागत कहाते हैं / कहा है कि:

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