________________ (536 ) साधु और दीनकी यथायोग्य री तसे सेवा करना चाहिए अतिथि, साधु और दीनकी सेवा किये विना, गृहस्थी के लिए भोजन करना भी मना है / इनकी सेवा विना जो गृहस्थ भोजन करता / है, उसका भोजन नहीं होता। कहा है कि: अर्हद्भ्यः प्रथमं निवेद्य सकलं सत्साधुवर्गाय च, प्राप्ताय प्रविमागतः सुविधिना दत्वा यथाशक्तितः / देशायातसधर्मचारि भरलं सार्द्धं च काले स्वयं, भुञ्जीतेति सुभोजनं गृहवतां पुण्यं निनैर्भाषितं // भावार्थ-गृहस्थ पहिले सब चीजें जिनेश्वर भगवान के आगे नैवेद्य रूपसे रक्खे; तत्पश्चात् विधि-सहित साधु वर्ग को दान दे और देशान्तर से आये हुए अपने साधर्मियों के साथ भोजन के समय भोजन करे / ऐमा भोजन ही गृहस्थियों का उत्तम भोजन है, यही जिनेश्वर भगवान की आज्ञा है। बीसवाँ गुण / - सदानभिनिविष्टश्च / अर्थात हमेशा आग्रह रहित रहना, मार्गानुसारी का बीसवाँ गुण है / आग्रही पुरुष धर्म-योग्य नहीं होता / जो आग्रही होता है, वह युक्ति को अपनी मान्यता की ओर खींच लेनाता है, और अनाग्रही मनुष्य युक्ति के पास अपनी मति को और अपनी मान्यता को लेजाता है। संसार में युक्तियों की अपेक्षा कुयुक्तियाँ विशेष वहार में आती हैं।