Book Title: Dharm Deshna
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 566
________________ परन्तु सर्प का विष मणि पर असर नहीं करता, इसी तरह मणि का अमृत सर्प पर असर नहीं करता / कारण यह है कि, दोनों अपने अपने विषय में सम्पूर्ण हैं / अर्थात् सर्प विषसे भरपुर है और मणि अमृतसे भरपूर है। इसी तरह जो मनुष्य अपने विषय में, और धर्म में पूर्ण हो उस के लिए कोई वाधा नहीं है। वह इच्छानुसार प्रत्येक स्थान में जा सकता हैं / वाधा केवल अपूर्ण मनुष्यके लिए है। अपूर्ण का का उत्साह क्षणिक होता है, विचार विनश्वर होता है, और धर्म वासना हल्दी के रंग सदृश होती हैं। उस को यदि उपकार करने की इच्छा हो तो पहिले वह अपना उपकार को पश्चात् दूसरे के उपकार का प्रयत्न करे / आर्य भूमि में हजारों मनुष्य जंगली हैं; विदेशियों की भी लमभग ऐसी ही दशा हैं; वे धन और स्त्री की लालच दे कर आर्य को भी अपने धर्म का बना लेते हैं / अतः जो दृढ धर्मात्मा हैं उस को चाहिए कि, वह उन के पास जा कर उन को सुधारे / अपूर्ण भी पूर्णता प्राप्त का, जा सकता है / अर्हन्नीति में विदेशागमन का जो निषेध है उस का कारण पूर्वोक्त धर्म हानि ही है / पूर्ण चाहे जहां जाय / अपूर्ण को निषिद्ध देश में कभी नहीं जाना चाहिए / निषिद्ध काल की मर्यादा भी त्याग करना चाहिए। कई मनुष्यों को रात्रि में बाहिर फिरने की मनाई होने पर भी वे बाहिर फिरते हैं, इस लिए वे कलङ्कित हो जाते हैं, उन के

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