Book Title: Dharm Deshna
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 559
________________ सेवा के अधिकारी मुमुक्षुजन होते हैं; साधु होते हैं / और यहाँ गृहस्थ धर्म का विवेचन किया जा रहा है / इसलिए केवल धर्म सेवा ही में लगा रहना गृहस्थों के लिए अनुचित है / जो मनुष्य धर्म को छोड़ कर, अर्थ और काम की सेवा करते हैं वे बीज को ही खा जानेवाले किसान की तरह भूखों मरते हैं / एक किसान बड़े परिश्रमसे, कहीं से बीज लाया / मगर उसको वह खा गया / वर्षा के समय खेत में न बो सका / इससे नान का अभाव हुआ, और नाज के अभाव में सुख का भी अभाव हो गया। इसी तरह अर्थ और काम के बीज धर्म को छोड़ कर, जो लोग अर्थ और कामही का सेवन करते हैं वे बीन खा जानेवाले किसान की भाँति दुःखी होते हैं / शंका-अर्थ अनर्थ का उत्पन्न करनेवाला है / इसलिए उसका आदर करना व्यर्थ है। मनुष्य धर्म और काम ही से जब अपना कार्य सिद्ध कर सकता है तब फिर क्या आवश्यकता है कि, अर्थ का सेवन भी किया जाय / धर्म से परलोक और काम से यह लोक सिद्ध हो जाता है / और जीव दोनों भवों को सफल करने ही के लिए पुरुषार्थ करता है / समाधान-शंकाकार यदि कुछ विचार करेंगे तो उनकी शंका आप ही मिट जायगी / गृहस्थावास में रह कर अर्थ विना धर्म और काम की सेवा होना कठिन है। जो मनुष्य अथ का सेवन नहीं करता है वह दूसरों का कर्नदार हो जाता है। कर्नदार देव, गुरु की सेवा नहीं कर सकता है।

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