________________ प्राप्त करने के साधनभूत धर्म, अर्थ और काम का अविरोध रीतिसे साधन करना, यह अठारहवाँ गुण है / इसमें 'मोक्ष ' शब्द की आवश्यकता नहीं थी, इसी लिए वह नहीं आया है। अब हम यह बतायेंगे कि, ये परस्पर वे कैसे विरोधी होते हैं और मनुष्य अविरोध रूपसे कैसे इनकी साधना कर सकता हैं / धर्म और अर्थ का नाश करके जो मनुष्य केवल 'काम ' नामा पुरुषार्थ की साधना करता है वह वनगज के समान आपदा का स्थान होता है। जैसे वनगज, काम के वश में हो कर, अपने जीवन को पराधीन दशा में डाल देता है और रो रो कर प्राण देता है, इसी तरह कामासक्त पुरुष का धन, धर्म और शरीर को नष्ट कर देता है / इसलिए केवल कामसेवा अनुचित है। जो मनुष्य धर्म और काम का अनादर कर, केवल अर्थ की अभिलाषा करता है, वह सिंह की भाँति पाप का अधिकारी होता है / जैसे सिंह हाथी के समान बड़े शरीवाले पशु को मार कर, आप थोड़ा खाता है और बाकी अन्यान्य पशु, पक्षियों को दे देता है / इसी तरह अर्थसाधक मनुष्य भी स्वयं थोड़ा खाता है और बाकी का अन्यान्य संबंधियों को सौंप देता है और आप अठारह पाप स्थानकों का सेवन कर, दुर्गति में जाता है / इस लिए केवल अर्थ की सेवा करना अनुचित है। इसी तरह अर्थ और काम को छोड़ धर्मही का सेवन करना गृहस्थाभाव का कारण है। धर्म मात्रही की