________________ (503) सामने-जो उस समय ध्याननिमग्न था-रख दी गई। राजा पुरुष यह देखने के लिये एक वृक्ष तले बैठ गया कि साधु इस महोर का क्या करता है ! योगीने ध्यान छोडा / आँखें खोलीं। सूर्य किरणों में चमकती हुई महोर उसके नजर आई। अनीति संपन्न महोरने योगी का ध्यान अपनी ओर खींचा / वह सोचने लगा,-"मैंने किसीसे याचना नहीं की तो भी यह महोर मेरे पास कहांसे आई ? शिव ! शिव ! मांगने पर भी कमी दो चार आनेसे ज्यादह नहीं मिलते और यह तो महोर ! सोना / परमात्माने प्रसन्न हो कर ही यह महोर दी है। मैंने ध्यानद्वारा जगत् का स्वरूप तो देख लिया है, परंतु स्त्रीभोगादिका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया है / जान पडता है, इसी लिए परमात्माने स्वणमुद्रा भेज दी है।" इस तरहसे अनर्थोत्पादक विचार योगी के हृदयमें उत्पन्न हुए / योगीने अपना चालीस वरस का योग गंगा के प्रवाह में वहा था। धन और स्त्री के संसर्ग में क्या कभी योग रह सकता है ? कहा है कि: आरंभे नत्थि दया महिलासंगेण नासई बमं / संकाए सम्मत्तं अत्थगहणेण पव्वजा नासई // 1 // भावार्थ-आरंभसे दया, स्त्री संगसे ब्रह्मचर्य, शंकासे श्रद्धा और द्रव्य लोभते दीक्षा नष्ट होते हैं / नीति के पैसे से मच्छीमार को लाभ हुआ और अनीति