________________ ( 507) मावार्थ-कष्ट के समय ऊँचे प्रकारकी स्थिरता रखना; महा पुरुष के पद का अनुसरण करना, न्याययुक्त वृत्ति को प्रिय. समझना, प्राण नाश का मौका आजाय तो भी अकार्य न करना, दुर्जनों से प्रार्थना न करना और थोड़े धनवाले मित्र से भी धन की याचना न करना / ऐसा असिधारा के समान सत्पुरुषो का आचार किसने बताया है ? यानी इसके बतानेवाले सत्यवक्ता और तत्ववेत्ता हैं / संक्षेप में यह है कि, शिष्टाचार की प्रशंसा धर्मरूपी बीज का आधार है। यह परलोक में भी धर्म प्राप्ति का कारण होता है / इतना ही क्यों, यहं मोक्ष का भी कारण होती है इसलिए मनुष्यों को अवश्यमेव यह गुण धारण करना चाहिए। तीसरा गुण। मार्गानुसारी का तीसरा गुण है-'कुलशीलसमैः सार्धं कृतोद्वाहोन्यगोत्रजः।। ( कुलशील समान हो मगर गोत्र भिन्न हो उसके साथ ब्याह काना ) पिता पितामह आदि के वंश का नाम है कुल, और मद्य, मांस, रात्रि भोजन आदि के त्याग का नाम है शील / उक्त कुल और शील जिन का समान होता है तब ही उनको धर्मसाधन में अनुकूलता मिलती है। यदि कुल शील समान नहीं होता है तो परस्पर में झगड़ा होने की संभावना रहती है / उत्तम कुल की कन्या, नीचे कुलवाले को धमकाया करती है और कहा करती है कि, यदि ज्यांदा गडबड