Book Title: Dharm Deshna
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 535
________________ ( 508 ) करेगा तो मैं अपने पीहर चली जाऊँगी। यदि हलके कुल की होती है तो वह पतिव्रतादि धर्म भली प्रकार से नहीं पालती है। इसलिए समान कुल की खास तरह से आवश्यकता है। इसी तरह यदि शील भिन्न होता है तो उनके धर्मसाधन में प्रत्यक्ष वाधा पडती है। एक को मद्य, मांस, मदिरा अच्छे लगते हैं और दूसरे को इन चीजों से घृणा हो तो दोनों के आपस में विरोध रहता है। और इससे सांसारिक व्यवहार में वाधा पहुँचती है। उनके आपस में प्रेम भी नहीं होता है। जब सांमारीक व्यवहार ही ठीक नहीं चलते तब धर्मकार्य में वाधा पड़े इसमें तो कहना ही क्या है ? इसलिए समान शील की भी खाम जरूरत है / वर्तमान में एक धर्म के दो विभाग हैं। उनमें केवल क्रियाकांड का ही फरक है। मगर उनमें भी यदि ब्याह हो जाता है तो वे जन्मभर प्रायः एक दूसरे के प्रतिकूल ही रहते हैं / तब जिनका कुलशील सर्वथैव असमान हो उनमें वैमनस्य न हो ऐसा कौन कह सकता है ? गोत्र भी दोनों के भिन्न ही होने चाहिए / वंश का नाम गोत्र है। एक ही वंश में जो पैदा होता हैं वे गोत्रज कहलाते हैं / वे यदि परस्पर लग्न कर ले तो उनको लोकविरुद्धता का दोष लगता है। चिरकाल आगत मर्यादा कईवार लोगों को बड़े बड़े अनर्थ करने से रोकती है। एक वंश के लोगो में व्याह नहीं होने की रीति प्रचलित रहने ही से बहिन भाई का नाता कायम रहता है। यह यवन

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