________________ (493) की शोमा है; ज्ञान और शुमध्यान चारित्र की शोभा है और विनयप्रवृत्ति विनय करना शिष्य की शोभा है। १०-ब्रह्मचारी आभूषणविहीन, दीक्षाधारी साधु परिग्रहरहित, बुद्धिमान मंत्रीयुक्त राजा और लज्जावान स्त्री शोभा पाते हैं। ११-अनवस्थित यानी अस्थिर चित्तवाले का आत्मा ही उसका शत्रु होता है; शीलवान मनुष्य की जगत में कीर्ति होती है; अस्थिर चित्तवाला दुरात्मा कहलाता है और जितात्मा इन्द्रियों का जीतनेवाला, अपने मनको वशमें रखनेवाला ( संसार भय भ्रान्त प्राणियों के लिये ) शरण होता है। १२-धर्मकृत्य के समान बड़ा दुसरा कोई कार्य नहीं; प्राणियों की हिंसा से बढ़कर, दुसरा कोई अकार्य नहीं; स्नेहराग से उत्कृष्ट दुसरा कोई बंध नहीं और सम्यक्त्व रूपी बोधि बीजको प्राप्ति के समान दुसरा कोई लाभ नहीं। १३-परस्त्री का समागम और मूर्ख लोगों की, अभिमानी लोगों की, नीच पुरुषों की और चुगलखोर आदमीयों की कमी सेवा नहीं करना चाहिए। १४-सेवा वास्तविक धर्मात्मा पुरुषों की करना चाहिए, मन की शंकाएँ वास्तविक पंडितों से पूछना चाहिए; साधु ही वंदनीय होते हैं। उनको वंदना करना चाहिए। और निरहंकारी व मोहममताहीन मुनियों को आहार पानी आदि देना चाहिए। १५-पुत्र और शिष्य को; मुनि और देव को; मूर्ख और तिर्यंच को; और मृत और दरिद्र को समान समझना चाहिए / ११-सब कलाओं में धर्म कला ही जीतती