________________ (484) करना; कि जिससे जैनधर्म से अजान भद्रिक परिणामी लोगों के हृदय से विकल्प नष्ट हों और वास्तविक धर्म का साधन कर सके। तीर्थकर देव की भक्ति करना; और अगडुशाह की भाँति दयाई परिणामी होकर, जगत के उद्धार के लिए दान देना / इस तरह शासन प्रभावना पद की आराधना करनी चाहिए। १७-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप संघ के अंदर समाधि हो इस प्रकार के प्रयत्न करना / अर्थात संघ समाधि नामा पद की माराधना करना। १८-साधुओं की शुद्ध आहार, पानी, वस्त्र, पात्र और औषधादि द्वारा भक्ति करके उनको सम्यक प्रकार से संयम आराधन के योग्य बनाना। यानी साधु सेवा करना। १९-अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करना। २०-दर्शन विशुद्धि करना। उक्त बीस पद या बीस स्थानक की सम्यक प्रकार से आराधना करने से तीर्थकरनाम कर्म आस्रव होते हैं। इन्हीं की आराधना से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभदेव स्वामी और अन्तिम तीयकर श्रीमहावीर स्वामीने इन्हीं बीस स्थानकों का आराधन कर तीथकर पद प्राप्त किया था। ___ अब सातवें गोत्रकर्म के आस्रव बताये जाते हैं / गोत्रकर्म के दो भेद हैं / उच्च और नीच / नीच गोत्र के आस्त्रव ये हैं:-दूसरे की निंदा, अवज्ञा और दिल्लगी करना / दुसरे के