________________ . (455) ९-मनुष्य बाल्यावस्था में विष्ठा खानेवाली अॅड के समान, यौवनावस्था में कामदेव के जोरसे गधे के समान और वृद्धावस्था में बूढे बल के समान होता है / इससे मनुष्य मनुष्य नहीं रहता है / धर्म विना मनुष्य मधा कहा जाता है / १८-मनुष्य बाल्यावस्था में माता के आधीन रहता है; युवावस्था में युवती के आधीन रहता है और वृद्धावस्था में वह पुत्रादि के प्रेम में मन रहता है। मगर यह मूर्ख किसी वक्त भी आत्मदृष्टिवाला-आत्मविचार करनेवाला नहीं बनता है। ११-धन की आशा से व्याकुल होकर मनुष्य, सेवा, खेती, व्यापार और पशुपालनादि कर्म करता है और अपना जन्म वृथा खोता है। १२-मनुष्य देह पाकर भी जीवों को कभी चोरी, कमी जूआ और कभी नास्तिकों की संगति आदि भवभ्रमण के कारण मिलते हैं। १३-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भानन रूप मनुष्यावतार पाकर, पापकर्म करना, मानो स्वर्ण के भानन में मदिरा भरना है / १४-अनुत्तर विमान के देव भी जिस मनुष्य भव को पाने का प्रयत्न करते हैं उसी मनुष्य भव को, जीव पाप में लगाते हैं / १५-नरक का दुःख तो परोक्ष है; मगर मनुष्य भव का दुःख तो प्रत्यक्ष ही है, फिर उसका वर्णन किस लिए किया जाय ? इस संसार में रहनेवाले जीवों के लिए एकान्त मुख तो कहीं भी नहीं है। किसी न किसी तरह का दुःख जीवों के पीछे