________________ (476 ) अपने से अधिक-ऋद्धिवाले को, या ज्ञानी को देखकर ईर्ष्या करना; गुणीजनों के गुणों में दूषण ढूँढना; पापमय स्वभाव रशना; दूसरों के सुखों का नाश करना और दूसरों की हानि में हर्ष प्रकट करना आदि अरति के आस्रव हैं। दूसरे को शोक उत्पन्न कराना, तथा आप स्वयं शोकाकुल बन उन्हीं विचारों में निमग्न रहकर रोना चिल्लाना, शोक के आस्रव हैं। स्वयमेव भयभीत होना; दूसरे को, चेष्टा करके डराना; दूसरे को दुःख देना और निर्दय कर्म करना आदि भय के आस्रव हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की निंदा करना; उनसे जुगुप्सा करना और उनके सदाचार को दूषित बताना आदि जुगुप्सा के कारण हैं / ईर्ष्या, विषय-गृद्धता, मृषावाद, अति कुटिलता और परस्त्री आसक्ति आदि स्त्रीवेद के आस्त्रव हैं। स्वदारा संतोष, ईर्ष्या का अभाव, कषाय की मंदता, सरल आचार और स्वभाव आदि पुरुषवेद के आस्रव हैं। स्त्री और पुरुष दोनों के साथ काम सेवन की अत्यंत अभिलाषा, तीव्र काम लालसा, पाखंड और किसी व्रत बलपूर्वक भंग करना आदि नपुंसकवेद के आस्रव हैं। चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रव सामान्यतया इस तरह बताये गये हैं: साधुनां गर्हणा धर्मोन्मुखानां विघ्नकारिता / मधुमांसविरतानामविरत्यभिवर्णनम् // 1 //