________________ (480) बालतपोग्नितोयादिसाधनोल्लम्बनानि च / अव्यक्तसामायिकता देवस्यायुष आस्त्रवाः // 3 // भावार्थ-सरागसंयम, देशसंयम, अकालनिर्जरा, सन्मित्रसंयोग, धमतत्वो को सुनने का स्वभाव, सुपात्रदान, तपस्या, श्रद्धा; ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप रत्नत्रय की विराधना का अमाव; मृत्यु समय पीत और पद्म लेश्या के परिणाम; बालतप ( ज्ञान विना, स्वर्ग या राज्य के लोभ से तप करना ) अग्नि अथवा जलसे या गले में फाँसा डाल कर मरना, (शान्तिपूर्वक स्त्री पति के साथ अग्निप्रवेश कर अपने प्राण त्यागती है; वह स्वर्ग में नाती है / जलमें डूब कर मरनेवाला व्यंतर देव होता है; प्रेभाधीन हो, जो गलेमें फाँसी डाल कर मरता है, उसके परिणाम उस समय एक ही और रहते हैं, इसलिए वह भी व्यंतर होता है। इसी लिए जल मरना, डूब कर मरना, और फाँसा खाकर मरना स्वर्ग के कारण बताये गये हैं ) और अविधिपूर्वक की हुई सामायिकतादि क्रियाएँ ये देवायु के आस्रव हैं। नामकर्म के आस्रव तीन भागों में विभक्त किये गये हैं। जैसे-अशुभ नामकर्म के, शुभ नामकर्म के और तीर्थंकर नामकर्म. के / अशुभ नामकर्म के आस्रव ये हैं:___ अमुक कार्य के लिये मन, वचन और काय की वक्रता; दूसरों को ठगना; कपट भाव, मिथ्यात्वभाव, चुगली; चित्त की