________________ (478 ) उदय में नहीं होते हैं उनकी उदीरणा करना; आदि सामान्यतया चारित्र मोहनीय के आस्रव हैं / मोहनीय कर्म के बाद आयुष्य कर्म आता है। उसके चार विभाग हैं / नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु / इन सब के आस्रव अलग अलग हैं। नरकायु के आस्रव / पञ्चेन्द्रियप्राणिवधो बहारम्भपरिग्रहौ / निरनुग्रहतामांसभोजनं स्थिरवैरिता // 1 // रौद्रध्यानं मिथ्यात्वानुबंधिकषायते / कृष्णनीलकापोताश्च लेश्या अनृतभाषणम् / 2 // परद्रव्यापहरणं मुहुर्मैथुनसेवनम् / अवशेन्द्रियता चेति नरकायुष आस्रवाः // 3 // भावार्थ-पंचेन्द्रीय का वध, अत्यंत आरंभ, अत्यंत परिप्रह, कृपा भावों का अभाव, मांस भोजन, सदा वैरभाव, रौद्रध्यान, मिथ्यात्वभाव, अनंतानुबंधी कषायभाव, कृष्ण, नील और कापोतलेश्या, मिथ्या भाषण, परद्रव्य हरण, प्रतिक्षण मैथुनासक्ति और इन्द्रियाधीनता ये नरकायु के आस्रव हैं। उन्मार्ग प्रतिपादक और सन्मार्ग का नाश, गूढ हृदयता, आर्तध्यान, शल्यसहित माया, आरंभ, परिग्रह, अतिचार