________________ (77) विरताविरतानां चान्तरायकरणं मुहुः / अचारित्रगुणाख्यानं तथा चारित्रदूषणम् // 2 // कषायनोकषायाणामन्यस्थानामुदीरणम् / .. चारित्रमोहनीयस्य सामान्येनास्त्रवा अभी // 3 // भावार्थ-मुनियों की निंदा करना; धर्माभिमुख मनुष्यों को कुयुक्तियों द्वारा धर्मच्युत करना; यानी उनके चारित्रग्रहण करने के भावों को फिरा देना; मांस मदिरामक्षी मनुष्यों के व्यवहारों की प्रशंसा करना यानी व्यसनियों की तारीफ करनाः देशविरति यानी बारह व्रत पालने की इच्छा करनेवाले अथवा पालनेवाले को अन्तराय डालना; अचारित्र गुण की प्रशंसा करना; चारित्र में दूषण निकालना; यानी कोई मुनिपद धारण करने की इच्छा रखता हो तो उसको पतित मुनियों के आचार को सामने रख, चारित्र से उपेक्षा करनेवाला बना देना; उसको कहना कि, साधु बनने में कोई लाभ नहीं है। क्योंकि साधु बनने पर कोई कार्य नहीं होता; लाभ श्रावकपन ही में है। हम साधु नहीं हुए इसको हम अपना अहोभाग्य समझते हैं। सोलह कषाय और नव नोकषाय जो सत्ता में रहे हुए हैं, उनकी उदीरणा करना; यानी, मनंतानुवंधी, प्रत्याख्यानावरणी, अप्रत्याख्यानावरणी, और संन्वलन-इन चारों के साथ क्रोध, मान,• माया और लोम, गुणने से 11 कषाय होते हैं। इनका और नोकषायों-जो