________________ ( 466 ) कहें तो इन अशुमानव के हेतु-चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ ) पाँच इन्द्रियों के 23 विषय ( जो आगे बताये मा चुके हैं ) पन्द्रह योग ( चार मन के, चार वचन के और चार काथ के ) पाँच गिथ्यात्व ( आभिग्रहिक, अनाभिप्रहिक, आभिनिवेशिक, सांशयिक, और अनामोगिक, इनका सम्यक्स्व के अधिकार में वर्णन किया जायगा / ) और आतं, रौद्र ध्यान / शुभ कर्म के बंध हेतु दान, शील और तपादि हैं। अब 'आसव' शब्द की व्युत्पत्ति देखें / " आगच्छति पापानि यस्मात्स आस्रवः / अर्थात् जिससे पापकर्म आवे वह है आस्रव / आस्रव के मूल दो भेद हैं: 1 सांपरायिक, 2 ईर्यापथ / सकषाय आस्त्रव को सांपरायिक आस्रव कहते हैं। और अकषाय आस्रव को ईर्यापथ / ईर्यापथ आस्रव की स्थिति एक समय मात्र की होने से उसके भेदों की विवक्षा नहीं है / परन्तु सांपरायिक आस्रव के भेद तत्त्वार्थसूत्र में 39 और नव तत्त्व आदि में 42 दिखलाये हैं / उन 42 भेदों के नाम ये हैं: १-प्राणातिपात; २-मृषावाद; ३-अदत्तादान; ४-मैथुन और ५-परिग्रह / इन पाँचों का त्याग नहीं करने को अव्रता. स्रव कहते हैं / क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों को कषायास्रव कहते हैं / स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय इन पाँचों इन्द्रियों को वशमें नहीं रखने का नाम इन्द्रियास्रव ह और मन, वचन व काया के योगों