________________ (464) णोन्मुख मनुष्य-मरने की इच्छा रखनेवाला मनुष्य कुपथ्य पदार्थों को भक्षण करता है, इसीतरह वे भी न्यायधर्म का परित्याग कर, विषयों में आसक्त होते हैं। आदि, च्यवन चिन्हों के द्वारा आकुलव्याकुल बने हुए देवों को किसी तरह से भी शान्ति नहीं मिलती है / देव यह सोचकर रुदन करते हैं कि हमें, देवांगना, विमान, पारिजात, मदार, संतान और हरिचंदनादि कल्पवृक्ष, रत्नजटित स्तंम, मणियों की विचित्र रचनासे रचित यह भूमि रत्नमय वेदिका, तथा रत्न के जीनोवाली यह वापिका आदि पदार्थ छोडकर, मुझे अशुचि पूर्ण और निंद्य गर्भावास में जाना पड़ेगा। इससे स्पष्ट विदित होता है कि, जैसे नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति म सुख नहीं है, वैसे ही देवगति में भी सुख नहीं है। Aanaraanand हैं आस्रव विचार। httluyuruyen इन चार तरह की गतियों की प्राप्ति का कारण आस्रव है। आस्रव दो प्रकार का है। शुभ और अशुभ / शुभ आत्रा पुण्य के नामसे पहिचाना जाता है और अशुभ आस्रव पाप के नामसे / पुण्यबध से मनुष्य और देवगति मिलती है और पाप बंधस नरक और तियच गति /