________________ (446 ) क्षुधापिपासाशीतोष्णातिभारारोपणादिना / कशांकुशप्रतोदैश्च वेदनां प्रप्तहन्त्यमी // 24 // खेचरास्तित्तिरिशुककपोतचटकादयः / श्येनसिञ्चानगृध्राद्यैः ग्रस्यन्ते मांसगृध्नुभिः // 25 // मांसलुब्धैः शाकुनिकर्नानोपायप्रपञ्चतः / संगृह्म प्रतिहन्यन्ते नानारूपैविडम्बितैः // 26 // जलाग्निशस्त्रादिभवं तिरश्चां सर्वतो भयम् / कियद्वा वय॑ते स्वस्वकर्मबन्धनिबन्धनम् // 27 // भावार्थ-१-तिर्यंच गतिप्राप्त जीव पहिले एकेन्द्री होते हैं / उन में से पृथ्वीकाय जीवों की स्थिति इस प्रकार की होती है / २-पृथ्वीकाय के जीव हलादि शस्त्रों द्वारा चिरते हैं। हाथी, घोड़े आदि के पैरों से रौंदे जाते हैं; जल के प्रवाह में खिचते हैं और अग्नि में जलते हैं। ३-खारे, कषायले, खड्डे और मूत्रादि के जलसे वे पीडित किये जाते हैं। इसी तरह क्षार तट प्राप्त पृथ्वीकाय के जीव गरम पानी में डाल कर उबाले जाते हैं। ४-कुम्हार उन्हें घड़ा, ईंट आदि का रूप दे कर पकाते हैं और राज उन को कीचड़ रूप में ला कर, दीवारें चुनते हैं। ५-जल स्वरूप जीवों कों ( जल स्वरूप जीव अपकाय कहलाते हैं ) सूर्य की किरणे तपाती हैं। हिम का संयोग उन को पत्थर के समान बनाता है और मिट्टी उस को सुखा