________________ ( 282 ) शिथिलाचारी होने पर भी गुणानुरागी और निर्मायी-निष्कपटी थे / भक्त लोग नीचे की मंनिलवाले साधु को वंदना कर ऊपर की मंजिल में गये / ऊपर की मंजिलवाले साधु को यह बात मालूम हुई / वह नीचेवाले साधु की निंदा करने लगा और कहने लगा:-" पासत्था को वंदना करने से पाप लगता है। प्रमु की आज्ञा का भंग होता है।" आदि; जो कुछ मुँह में आया वही नीचेवाले साधु के लिए कहा / श्रावक सुनने के बाद वापिस नीचे आये और नीचेवाले साधु को ऊपर के समाचार सुनाये / गृहस्थ नमक मिरच लगाकर एक दूसरे की बात कहने में बहुत ज्यादह चतुर होते हैं / मगर नीचे की मंनिलवाले साधु गुनागुगगी थे। इसलिए उन्होंने शान्तिपूर्वक उत्तर दिया:-" हे महानुभावो, ऊपर की मंजिलवाले पूज्यवर ठीक कहते हैं। बेशक मैं अवंदनीय हूँ। वे भाग्यशाली हैं। सूत्रसिद्धान्तों के जानकार हैं; चारित्रपात्र हैं और शुद्ध आहार लेनेवाले हैं। मैं तो महावीर के शासन को लज्जित करनेवाला केवल वेषधारी हूँ।" इस तरह की बातें सुन, इधर की बातें उधर करनेवाले श्रावक बहुत चकित हुए / इतने ही में एक केवलज्ञानी साधु वहाँ आगये / श्रावकों ने दोनों साधुओं का वृत्तान्त सुनाकर पूछाः" हे भगवन् ! दोनों में से अल्पकर्मी कौन है ?" ज्ञानी पुरुषने उत्तर दिया:-" निन्दा करनेवाला दंभी