________________ (400 ) भावार्थ-जैसे अन्ध मनुष्य अपने दूसरे कदमपे ही, स्थित कूप को नहीं देख सकता है। इसी तरह से विषयांध पुरुष भी विषयों के आस्वादन में जिसका मन लिप्त हो गया है, ऐसा पुरुष भी अपने सामने खडी हुई मौत को नहीं देख सकता है / आपातमात्रमधुरैर्विषयैर्विषसन्निभैः / / आत्मा मूच्छित एवास्ते स्वहिताय न चेतते // भावार्थ-विष के समान विषयों के जो भोगते समय कुछ मीठे मालूम होते हैं-द्वारा आत्मा मूछित होकर रहता हैं। मगर वह अपने हित का चिन्तवन नहीं करता है। तुल्ये चतुर्णा पौमर्थे पापयोरथ कामयोः। आत्मा प्रवर्तते हन्त / न पुनर्धर्ममोक्षयोः // भावार्थ-यद्यपि चारों पुरुषार्थों की समानता बताई गई है; परन्तु खेद इस बात का है कि, आत्मा अर्थ और काम साधन में ही प्रवृत्ति करता है / धर्म और मोक्ष के लिए प्रवृत्ति नहीं करता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं / इनमें से पहलेवाले तीन पुरुषार्थों को गृहस्थी साधते हैं। मुनि केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही की साधना करते हैं / मोक्ष सिवा के दूसरे तीन पुरुषार्थ दुःखमिश्रित सुखवाले हैं। और मोक्ष सर्वोत्तम एकान्त आत्मीय सुखसाधक हैं।