________________ (429) स्वयं कष्ट सहन कर दूसरों को सुख पहुँचाना क्या कम परोपकार है ? नहीं तो स्नान, विलेपन, तैलमर्दन, दन्तधावन, धूप, दीप, ताम्बूल आदि से शरीर की शुद्धि, पलंग का शयन और पंखे का पवन आदि सुखके साधन कौन पसंद नहीं करता है ! सक करते हैं। केवल मोक्षाभिलाषी जीव होते हैं वेही इनका त्याग करते हैं / शास्त्रकारों का यह भी कथन है, कि 'ब्रह्मचारी सदा शुचिः' (ब्रह्मचारी सदैव शुद्ध होता है) इस वाक्यानुसार साधुओं को स्नान विलेपनादिकी आवश्यकता नहीं है। देवपूजादि के निमित्त जो क्रिया की जाती है, वह भी श्रावकों के लिए है। साधुओं के लिए नहीं / श्रावकों को भी यह आज्ञा दी गई है, कि वे परिमित जलसे जन्तुविहीन स्थान में विवेकपूर्वक स्नानक्रिया करें / कूआ, वावडी, तालाब आदि में, कूद जल जन्तुओं को पीडित कर, पवित्र बनना, सर्वथा अनुचित है / अन्यजीवों को दुखी करनेवाला कैसे शान्ति प्राप्त कर सकता ? हिन्दुधर्म में मनुस्मृति प्रामाणिक और पवित्र समझी जाती है। उसमें भी इसके संबंध में निम्नलिखि बातें लिखी हैं: एका लिङ्गे गुदे तिनस्तथैकत्र करे दश / उभयोः सप्त दातव्या मृदः शुद्धिममीप्सता // 1 // एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् / त्रिगुणं स्याद्वनस्थानां यतीनां तु चतुर्गुणम् // 2 //