________________ (497) मृजलानलवातांशुस्नानैः शौचं वदन्ति ये / गतानुगतिकैस्तैस्तु विहितं तुषखण्डनम् // 11 // तदनेन शरीरेण कार्य मोक्षफलं तपः / क्षाराब्धै रत्नवद्धीमान् असारात्सार मुद्धरेत् // 12 // भावार्थ-१-यह शरीर रस, रुधिर, मांस, मेद, हड्डिया, मज्जा, शुक्र, आँते और विष्ठारूपी खराब पदार्थों का स्थान है। फिर इस शरीर में पवित्रता कैसे आसकती है ? २-जिसके नव द्वारों में से निरन्तर खराब रसके झरने झरते रहते हैं, जो खराब चीजों का उद्गमस्थान है उस शरीर में शौच की-शुद्धि की कल्पना करना महान् मोह की विडंबना मात्र है / ३-जो शरीर वीर्य और रुधिर से उत्पन्न होता है। मलके झरणे से बढ़ता है और गर्भ में जरायसे ठुका रहता है वह पवित्र कैसे हो सकता है ? ४-जो शरीर, माताने अन्नजल ग्रहण किया; वह नसनस में फिरा; फिर क्रमशः उससे दुग्ध उत्पन्न हुआ ऐसे दुग्ध को पी कर बढा है; उसको कौन बुद्धिमान पवित्र मान सकता है ? ५दोष ( वात, पित्त और कफ) धातु ( रस, रुधिरादि सात धातु) मल व्याप्त और छोटे छोटे कीड़ों के स्थान और रोगरूपी सर्प समूह से काटा हुआ शरीर कैसे पवित्र कहा जा सकता है ? " ६-स्वादिष्ठ भोजन, पान और अन्य पदार्थ भी खाने पर, जब शरीर में जाते हैं, तब विष्ठा होजाते हैं। तो फिर वह शरीर