________________ (33) तथैव धनदेहादिपरिग्रहपराङ्मुखः / स्वस्थ एको भवाम्बोधेः पारमासादायत्यसौ // 12 // तत्सांसारिकसंबन्ध विहार्यकाकिना सता / यतितव्यं हि मोक्षाय शाश्वतान्तशर्मणे // 13 // भावार्थ-१-हे जीव ! पुत्र, मित्र, स्त्री और स्वशारीर की सुंदर प्रक्रिया यानी सत्कार यह सब कुछ परकार्य है / इसको तु स्वकाय न समझना। २-जीव अकेला जन्मता है। अकेला मरता है इसी तरह अपने इकट्ठे किये हुए कर्मों को भी भवान्तर में वह एकेला ही भोगता है। ३-अनेक प्रकार के कर्म करके जीव धन इकट्ठा करता है / उसका उपभोग अन्य मिलकर करते हैं। और वह नरक में जाता है। ४-आधि, व्याधि और उपाधि रूप दुःख दावानल से भयंकर बनी हुई संसार रूपी विस्तीर्ण अटवी में जीव, कर्माधीन होकर, अकेला भ्रमण करता है। ५-जीव को सुख और दुःख का अनुभव करानेवाला शरीर यदि सहायता करे तो फिर भाई, बहिन आदि कुटुंब सहायता न करे तो कोई हानि नहीं है / ( जब शरीर ही मददगार नहीं होगा तो फिर अन्य कुटुंब की मदद की आशा करना तो केवल दुराशा मात्र ही है।) ६-पूर्व भव से शरीर न साथ में आया है और न वह भवान्तर में साथ में जावेहीगा। यह मार्ग में जाते हुए मिलनेवाले उदासीन भावधारी मुसाफिर के 28