________________ (430 ) भावार्थ-जो अपने शरीर की शुद्धि चाहता है, उसको चाहिए कि, वह लिङ्ग में मिट्टी का एक लेप, गुदामें तीन लेप, बाएँ हाथ में दस लेप और पीछे दोनों हाथों को शामिल करके सात लेप देवे / यह शौचविधि गृहस्यों के लिए है / ब्रह्मचारियों को इससे दुगने लेप, वानप्रस्थों को तीन गुने लेप और यतियों को चार गुने लेप करने चाहिए। पाठक ! देखिए / उक्त श्लोकों से 'ब्रह्मचारी सदा शुचिः / इस कथन का क्या मेल खाता है ? इन श्लोकों से तो उक्त वाक्य सर्वथा निष्प्रयोजनीय ठहरता है / इन श्लोकों में जैसी विधि बताई गई है, वैसी विधि करनेवाला भी तो आजकल कोई नहीं दिखता / तो फिर आजकल के लोग क्या अपवित्र ही हैं ? मनुस्मृति के इस आदेशानुसार यति-सन्यासि-यदि शुद्धि करने बैठेंगे तो मैं सोचता हूँ कि, उनको ईश्वरभजन का समय भी नहीं मिलेगा / मान लो कि वह बराबर इस तरह विधि कर लेगा तो भी दूसरे लोग तो उसको शुद्ध नहीं मानेंगे। यदि किसी मनुष्य पर उक्त प्रकार की क्रिया करनेवाले का थूक पडेगा, तो, जिस पर थक पडा है, वह क्या कुपित हुए विना रह जायगा ? कदापि नहीं / संभव है कि, वह साधु जान कर न बोले; तो भी उसके हृदय में तो अवश्यमेव दुःख होगा। अभिप्राय कहने का यह है कि, करोड़ों घड़ों से स्नान करो;