________________ (401) 'अर्थ, नामा पुरुषार्थ अन्य तीन पुरुषार्थों से उतरते दर्जेका है। क्योंकि वह अर्जन-कमाने-, रक्षण, नाश और व्ययरूप आपत्तियों के संबंध से दूषित है। * काम' नामा पुरुषार्थ यद्यपि 'अर्थ' से कुछ चढ़ता हुआ है। क्योंकि उसमें विषय-जन्य सुख का लेश रहा हुआ है; तथापि वह अन्त में दुःखदायी और दुर्गति का देनेवाला है / इसलिए धर्म और मोक्ष से नीचे दर्जे का है। _ 'धर्म, पुरुषार्थ अर्थ और काम से उत्तम है / क्योंकि वह इस लोक और परलोक दोनों में सुख का देनेवाला है। तो भी वह मोक्ष की अपेक्षा नीचे दर्जे का है। क्योंकि वह पुण्यबंध का हेतु है। और पुण्य सोने की बेड़ी के समान होने से वह भी बंधन रूप है। पुण्य के योग से जीव को देवतादि की गति द्वारा संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। 'मोक्ष' पुरुषार्थ पुण्य और पाप को सर्वथैव नष्ट करने का कारण है। दुःख तो इससे थोड़सा भी नहीं होता है। यह विषमिश्रित अब की तरह आपातरमणीय नहीं है। इसी तरह परिणाम में दुःखदायी भी नहीं है। यह एकान्तरीत्या आनंदमय, अवाच्य, अनुपमेय, और अव्यावाघ सुखमय है / इसीलिए योगी पुरुष तीन पुरुषार्थों का अनादर कर, केवल 'मोक्ष' की साधना करनेही में कटिबद्ध रहते हैं। 26