________________ ( 417 ) आढ्यं निःस्वं नृपं रकं ज्ञं मूर्ख सज्जनं खलम् / अविशेषेण संहर्तुं समवर्ती प्रवर्तते // 9 // न गुणेष्वस्य दाक्षिण्यं द्वेषो दोषेषु वास्ति न / दवाग्निवदाण्यानि विलुम्पत्यन्तको जनम् // 10 // इदं तु मास्म शङ्कध्वं कुशास्त्रैरपि मोहिताः / कुतोऽप्यपायतः कायो निरपायो भवेदिति // 11 // ये मेहं दण्डसात्कर्तुं पृथ्वीं वा छत्रसात् क्षपाः / तेऽपि त्रातुं स्वमन्यं वा न मृत्योः प्रभविष्णवः // 12 // आ कीटादा च देवेन्द्रात् प्रभावन्तकशासने / अनुन्मत्तो न भाषेत कथञ्चित् कालवञ्चनम् // 13 // पूर्वेषां चेत् क्वचित् कश्चित् जीवनं दृश्येत कैश्चन / न्यायपथातीतमपि स्यात् तदा कालवञ्चनम् // 14 // भावार्थ-यह संसार असार है। इसमें की सारी चीजें अनित्य स्वभाववाली हैं / इनका सुख वृया और क्षणिक है तो मी प्राणियों की उसमें मूर्छा रहती है। (1) अपनेसे, अन्यों से और सब दिशाओं से निसमें आपदाएँ आया करती हैं, ऐसे यमराज के दाँतरूप यंत्र में जीव रहते हैं और कष्ट से अपना * जीवन बिताते हैं। (2) अभिप्राय यह है कि, दाँतों के बीच की चीज उसी समय तक साबित रहती हैं, जबतक कि, दाँत मिल नहीं जाते हैं, इसी तरह क्रूर काल के दाँतों में मनुष्य 27