________________ (416) स्थायी कर्मबंध कर महान दुःख उठाता है / इसलिए शास्त्रकार फर्माते हैं कि, हे भव्य ! जिस शरीर के लिए तु कर्मबंध करता है, वह तेरा नहीं है। हजारों उपाय करने पर भी वह तेरा होनेवाला नहीं है। जब शरीर भी तेरा नहीं है तब फिर अन्य वस्तुओं पर तु वृथा क्यों मोह करता है। अनित्यं सर्वमप्यस्मिन् संसारे वस्तु वस्तुतः / मुधा सुखलवेनापि तत्र मुळ शरीरिणाम् // 1 // स्वतोऽन्यतश्च सर्वाभ्यो दिग्भ्यश्चागच्छदापदः / कृतान्तदन्तयन्त्रस्थाः कष्टं जीवन्ति जन्तवः // 2 // वज्रसारेषु देहेषु यद्यास्कन्दत्यनित्यता। रम्मागर्मसगर्माणां का कथा तर्हि देहिनाम् // 3 // असारेषु शरीरेषु स्येमानं यश्चिकीर्षति / जीर्णशीर्णपलालोत्थे चश्चापुसि करोतु सः // 1 // न मन्त्रतन्त्रभेषज्यकरणानि शरीरिणाम् / त्राणाय मरणव्याघ्रमुखकोटरवासिनाम् // 5 // प्रवर्धमानं पुरुषं प्रथमं असते जरा। ततः कृतान्तस्स्वरते धिगहो ! जन्म देहिनाम् // 6 // यद्यात्मानं विजानीयात् कृतान्तवशवर्तिनम् / को ग्रासमपि गृह्णीयात् पापकर्मसु का कथा // 7 // समुत्पद्य समुत्पद्य विपद्यन्तेऽप्सु बुबुदाः / यथा तथा क्षणेनैव शरीराणि शरीरिणाम् // 6 //