________________ (13) है-बढ़ाते हैं। (1) ( अभिप्राय यह है कि, वटवृक्ष जिस स्पान में उत्पन्न होता है उस स्थान को बरबाद कर देता है। इसी तरह क्रोध भी जिस मनुष्य के शरीर में उत्पन्न होता है, उसके रक्त मांस को नष्ट कर देता है। ) जैसे हाथी पर चढा हुआ महावत-फीलवत-दूसरों को तुच्छ समझते हैं। इसी तरह मानारूढ और मर्यादाका उलंघन करनेवाले मनुष्य भी किसी की परवाह नहीं करते हैं / (2) सदा दुःख देनेवाली कौंवच-बीज के समान माया को दुष्टाशयी मनुष्य नहीं छोड़ते हैं। (3) कौंच के बीन शरीर में लगाने से, शरीर में चटपटी लगती है; शरीर सून जाता है और मनुष्य को बहुत दुःख उठाना पड़ता है / इसी तरह मायाचारी मनुष्य भी अपनी आन्तरिक वृत्ति से सदैव सशंक रहता है / वह शान्तिपूर्वक सो भी नहीं सकता है / ) जैसे कांजी के पानी से दुध और अंजन-काजल से-सफेद वस्त्र दृषित होता है। इसी तरह लोभ से सब गुण दूषित हो जाते हैं / (5) पूर्वोक्त चारों कषायें मवरूपी जैलखाने में रहते हुए जीवों के लिए चौकीदार समान हैं / जब तक ये जागृत रहते हैं, तब तक मनुष्यों को मोक्ष नहीं मिलता है। (5). तात्पर्य यह है कि, कषायों की मंदता के विना, वैराग्य नहीं होता है; वैराग्य के विना तपक्रिया नहीं होती है; तप विना प्राचीन कर्मों का क्षय नहीं होता है और कर्मक्षय के