________________ ( 380 ) के पीछे भी मोह महाराज अच्छी तरह से लग गये हैं। परन्तु महाराज को बुरा न लगाने के लिए वह यह कहकर चुप हो जाता है कि,-" हाँ महाराज आप तो हरेक कार्य दुनिया के लाभ के लिए ही करते हैं।" इसतरह जाँच करेंगे तो ज्ञात होगा कि, कई साधुओं के पास दस हजार ग्रंथ लिखे मिलेंगे, किसी के पास बीस हजार और किसी की पास छोटी मोटी मिलाकर एक लाख पुस्तकें मिलेंगी, मगर उनमें से उन्होंने पढ़ी तो केवल दस बीस पुस्तके ही होंगी। सारे जन्मभर यदि कोई पढ़ेगा तो केवल सौ, दो सौ पुस्तकें बाँच सकेगा। बाकी के ग्रंथ तो उनके लिए केवल मार मात्र ही है। तो भी अगर उनके पास से कोई एकाध पुस्तक माँगने जाता है, तो वे किसीको पुस्तक नहीं देते हैं। और तो क्या ? किसी ग्रंथ की उनके पास दस प्रतियाँ हों, तो भी वे मोह के वश होकर उनमें से एक भी कोपी किसी को नहीं देते हैं / वे उन पुस्तकों की सार सँभाल करने में अपना उत्तम चारित्र पालने का और ज्ञानवृद्धि करने का अमूल्य समय योही बरबाद करदेते हैं / मोह के कार्य को भक्ति का कार्य मानलिया जाता है, सो यह बात अनुचित है। यह कार्य यदि परमार्थ बुद्धि से किया जाय तो वह सर्वथा अनुमोदनीय है; मगर वह मोहवश किया जाता है, इसलिए वह उन्मार्ग रूप है। कारण यह है कि वे मुनि अपने पास की पुस्तकों को ही सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं। दूसरों के पास की पुस्तकों को