________________ ( 386 ) सर्प जैसे वृक्ष के कोटर में रहते हैं, वैसे ही, शरीर में रोग रहने हैं / सर्प जैसे प्राणों के हर्ता हैं वैसे ही रोग भी प्राणों को हरण कर लेते हैं / शरीर तो स्वभावतः चला जानेवाला है ही; मगर उसमें युवावस्था की जो लक्ष्मी है वह तो उससे भी बहुत पहिले पलायन कर जानेवाली है / इसलिए उस यौवनश्री को पा कर शुभ कार्य करने चाहिए / कहा है कि: आयुः पताकाचपलं तरङ्गचपलाः श्रियः / भोगिभोगनिभा भोगाः संगमाः स्वप्नसन्निमाः // भावार्थ-आयुष्य ध्वजा की भाँति चपल / समुद्र की तरंगों के समान सम्पत्ति अति चपल है; भोग सर्प-फणों के समान भयंकर हैं और संभोग स्वप्न के समान हैं। ____ जो आयुष्य अमूल्य है; लाख स्वर्ण-मुद्राएँ देने पर भी जो नहीं मिलनेवाला है; और इन्द्रादि देव भी जिस को बढ़ा नहीं सकते हैं; वही आयुष्य पताका के समान चंचल है / इसलिए चंचल आयुष्य के अंदर निश्चल आत्मकार्य और परोपकार करना चाहिए / लक्ष्मी समुद्र की तरंगों के समान अस्थिर है। अस्थिर स्वभाववाली लक्ष्मी का सदुपयोग सुपात्रदान है / सुपात्रदान के प्रभाव से अस्थिर स्वभाव छोड़ कर, स्थिर स्वभाववाली हो जाती है। भोग इस भव में और परभव में भी दुःख देनेवाले हैं।