________________ ( 378) का पालना / अनादिकाल से आत्मा का स्वभाव खाना, पीना और खेलकूद करना है। मैं ऐसाही करता हूँ। तप-धर्म अर्थात् तपना यह तो स्वभावतः ही व्यवहार में आता है। मैं लखपती बनूँ , वाडी, गाड़ी और लाड़ी के सुखका मोक्ता बनें; मुझ को संसार साहुकार कहे; मेरा हुक्म जगत माने आदि / " इस प्रकार उन्मत्तता पूर्ण वचन बोल, मोह से मूञ्छित हो, जीव वृथा ही अपना जन्म गँवाता है। इसलिए मनुष्यों को सबसे पहिले मोह का त्याग करना चाहिए। गृहस्थी की बात इस समय छोड़कर हम साधु के संबंध में विचार करेंगे, जिसने संसार का त्याग कर दिया है / वैराग्य की हीनता से राग, द्वेष और मोह की त्रिपुटि साधु को भी मूच्छित बना देती है, वह अकृत्यों को भी उन्हें कृत्य समझा देती है। "पुस्तक की भक्ति करनेवाला, यानी ज्ञानपद का आराधक जीव तीर्थकर गोत्र बाँधता है / " इस वाक्य के द्वारा, महामल्ल मोह से हारा हुआ जीव उल्टा उपदेश देनेके लिए कटिबद्ध होता है। आप भी कुमार्ग को-उल्टे मार्ग को-सीधा मार्ग मान बैठता है और इस तरह वह अपने आपको और भद्र प्रमाणी जीवों को भवकूप में डालने का प्रयत्न करता है। वह पुस्तकें लिखाता है, लिखी हुई पुस्तकें खरीदता है और उनके लिए नये ढंग से उपदेश देकर वह श्रावकों के पाससे पैसे निकलवाता है। लिखित और मुद्रित पुस्तकें जब उसके पास बहुत हो जाती हैं, तब वह