________________ ( 376 ) वहा मोह भी जरूर ही रहता है। इस तरह इनकी अन्वय व्यतिरेक प्राप्ति है / जहां यह त्रिपुटी एकत्रित होती है, वहीं इसके नौकर क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, शोक, संताप, काम, इच्छा, प्रमाद, विकया और ईर्ष्या आदि भी जा पहुँचते हैं / वे इकट्ठे होकर बिचारे जीव को धर्मवृक्ष के मीठे फलों को नहीं खाने देते हैं। वे उसको विषयरूपी विषवृक्ष के कहवे फल खाना सिखाते हैं। इनके खानेसे जीव मच्छित हो जाता है। फिर वह हेय, ज्ञेय और उपादेय पदार्थों की पहिचान नहीं कर सकता है / वह देव, अदेव; गुरु, कुगुरु; धर्म, अधर्म, और सत्य, असत्य किसीको नहीं जानता है / वह केवल अपनी पाँचों इन्द्रिया तृप्त करनेही में अपना समय बिताता है। मति को चंचल बनाकर उसको चारों तरफ दौड़ाता है। वह इस डरसे मुनियों के पास भी नहीं जाता है कि, यदि मैं मुनियों के पास जाउँगा तो वे अपनी चतुराई से या अपने प्रभावसे; मुझे विवश करके किसी बातका नियम करवा लेंगे। जब वह मुनियों के दर्शन करने को भी नहीं जाता है, तब फिर उनके उपदेश श्रवण की तो बात ही क्या है ? त्रिलोकनाथ वीतराग भगवान की पूजा और दर्शन करने का समय भी इस जीव को नहीं मिलता है। यदि कोई उसको कहता है कि,-" चलो आज मंदिर में पूजा, ऑगी आदिका बहुत ठाठ हो रहा है, तो वह उत्तर देता है कि-" हमें क्या ठाठ के दर्शन करते हैं ? अवकाश मिलेगा तब