________________ (374) अहो ! संसारकूपेऽस्मिन् जीवाः कुर्वन्ति कर्मभिः / अरघट्टघटीन्यायेनैहिरेयाहिरां क्रियाम् // भावार्थ-अहो / इस संसाररूपी कूप के अंदर, जीव अपने कर्मों के कारण से रेंट की घेड़ों की तरह, आनेजाने की क्रिया करते हैं / अर्थात् अरघट्ट-रेटकी घेड़ जैसे एक भरती है और दूसरी खाली हो जाती है। इसी भांति इस संसार में एक मरता है और दूसरा जन्म लेता है / तो भी मनुष्य अपने जीवन को व्यर्थ ही बरबाद कर देता है / कहा है कि: धिग धिग् मोहान्धमनसां जन्मिनां जन्म गच्छति / ___ सर्वथापि मुधैवेदं सुप्तानामिव शर्वरी // भावार्थ-जैसे सोते हुए पुरुषकी रात्रि व्यर्थ जाती है वैसे ' ही मोहसे अंधे बने हुए प्राणियों का जीवन सर्वथा व्यर्थ जाता है। यह बात अत्यंत धिक्कारने योग्य है। मोहराजा के राज्य में रहनेवाले मनुष्य खेलने कूदने में समय बिताते हैं; बालचेष्टाएँ करते हैं; और उद्यानों में जाकर कर्म के हेतुभूत शृंगार रस में मग्न हो-मस्त हो संसार की अभिवृद्धि करते हैं। उस समय वे यह भी भूल जाते हैं कि, उनका धर्मके साथ भी कुछ संबंध है / वे मनुष्य जन्मरूप कल्प- वृक्ष के दाने, शील रूप उत्तम फलों को लेनेकी परवाह न कर कामरूपी करीर वृक्षके विषयरूपी कटु फलों को लेता है। इसी