________________ (377) शान्ति से जाकर भगवानके दर्शन करेंगे। इस समय तो वहाँ लोगों की भीड़ होगी इसलिए मेरा मन दर्शन करने में नहीं लगेगा / तुम जाओ। मैं तो मंदिर में शान्ति होगी उस समय जाऊँगा।" इस तरह का उत्तर दे; प्रेरक को विदाकर, आप कर्म-क्लेश के पंजेम फसता है। उसीको वह अपना कर्तव्य समझता है / वह धर्म को अधर्म बताने में भी नहीं चुकता है। यदि कोई उसको कहता है कि,-" तुम दान, शील, तप और भावना में अपना मन लगाओ, तो वह विषयलंपट जीव उत्तर देता है कि,-" भाई ! मैं इतने जीवों का पोषण करता हूँ, वे सही जीव धर्म करते हैं। अब मुझे धर्म करने की क्या जरूरत है ? शास्त्रकार कहते हैं कि, दान उत्तम पात्र को देना चाहिए। मेरा आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय युक्त है। इसी तरह वह देवरूप, और गुरुरूप और धर्मरूप भी है। उससे चढ़कर उत्तम पात्र कौन हो सकता है ? मैं उसी आत्मा का विनय करता हूँ। यानी वह जो कुछ मांगता है, मैं उसको वही देता हूँ। मैं तत्काल ही अविलंब उसकी इच्छा को पूर्ण करता हूँ। उसको लेशमात्र भी क्लेश नहीं होने देता हूँ। कई लोग तो आत्मा को भखा, प्यासा रखते हैं / बैठकी तरह उससे अनेक कष्ट सहाते हैं। मगर मैं तो उसको ठीक नहीं मानता हूँ। शील धर्म का अर्थ यह है कि, आत्म:स्वभाव