________________ लिए शास्त्रकार ऐसे लोगों को धिक्कारते हैं और उन्हें सोते हुए मनुष्य को वृथा रात बितानेवाले के समान वृथा जीवन बितानेवाला बताते हैं। और भी कहा है कि: एते रागद्वेषमोहा उद्यन्तमपि देहिनाम् / मूलाद् धर्म निकृन्तन्ति मूषका इव पादपम् // __मावार्थ-चूहा जैसे वृक्ष की जड़ को काट डालता है। वैसे ही राग, द्वेष और मोह प्राणियों के बढ़े हुए धर्म कोवैराग्य को जड़मूल से काट डालते हैं। . ___राग द्वेष और मोह की त्रिपुटी तीनों लोक को बरबाद करती है / राग और द्वेष दोनों सहचारी हैं। जहाँ राग होता है वहाँ गौणता से द्वेष भी रहता है। जहाँ द्वेष होता है, वहाँ रागकी भी विषम-व्याप्ति होती है। अर्थात् जहाँ द्वेष होता है, वहाँ थोड़ा बहुत राग भी गौणरुप से रहता है। कहीं सर्वथा नहीं भी रहता है। जैसे पति, पत्नी में, गुरु, शिष्य में पिता, पुत्र में और भाई, बहिन में; यदि किसी कारण से द्वेष होजाता है; तो भी उनमें थोड़ा बहुत राग अवश्यमेव रहता है। परन्तु यदि प्रतिस्पर्खियों में जैसे राजा, राजामें; सेठ, सेठमें; और पंडित, पंडितमें; कभी द्वेष होजाता है तो वहा, गौणरूप से राग रहता है यह नहीं कहा जा सकता है। जहाँ राग, द्वेष होते हैं। वहाँ मोह अवश्यमेव होता है। इसी तरह जहाँ रागद्वेष होता है,