________________ (383) वे मरते समय भी अपने शिष्यों को या श्रावकों को नहीं दे सकते हैं। ये सारी विडंबनाएँ मोह की की हुई हैं। इसलिए हे मव्यो ! मोह का त्याग कगे; वैराग्य में चित्त लगाओ और वैराग्य भावों के उपदेशक श्लोंकों का खूब ध्यानपूर्वक मनन करो / देखो, यह सहचारी शरीर भी अपना नहीं है और अपने साथ रहने का भी नहीं है। शरीर की दुर्जनता। विधाय सहनाशौचमुपस्कारैर्नवैर्न वैः / गोपनीयमिदं हन्त ! कियत्कालं कलेवरं // भावार्थ-स्वभाव से ही जो अशौच और अपवित्र है। ऐसे शरीर को नये नये उपायों द्वारा कब तक सुरक्षित रख सकोगे ? अन्तमें तो वह कृमी रहनेवाला नहीं है / सत्कृतोऽनेकशोऽप्येश, सत्क्रियेत यदापि न / तदापि विक्रियां याति कायः खलु खलोपमः // भावार्थ-शरीर दुर्जन की उपमावाला है। क्योंकि इस शरीर का बारंबार सत्कार किया जाता है, तो भी वह एकही वार सत्कार न पाने से विकृत होजाता है। असत्पुरुषों का बारबार खान, पान, सन्मान आदि से सत्कार किया जाने पर भी यदि एकाधवार उसमें कमी होजाय