________________ (301) प्रकार के वेष धारण किये है / परन्तु एक शुद्धोपदेश का रूप उन्होंने कभी नही बनाया है। यदि वह धारण किया जाय तो अवश्यमेव वीतराग प्ररूपित तत्व में रुचि हो और वही रुचि कार्य में परिणत होकर मुक्ति नगर में जाने के लिए टिकिट मिल जाय कि जिव बे रोक टोक चला जाय / जगत में जीव भिन्न 2 रुचिवाले हैं। कोई ज्ञानरंगी है; कोई क्रिया कुशल है; कोई ज्ञानप्रेमी है; कोई अध्यात्मरसिक है; कोई ध्यानमग्न है और कोई शासनप्रेमी है / इस तरह जीव भिन्न 2 गुणों के अनुरागी होते हैं / वे रहें / मगर उन्हें चाहिए कि वे एक गुण को ही सर्वथा अच्छा समझकर दूसरे गुणों की निंदा न करें। उक्त सब ही गुण मुक्ति के साधन हैं / जैसे धन उपार्जन करने का एक ही साध्य होता है; परन्तु उसके साधन अनेक होते हैं। कोई किस तरह से और कोई किस तरह से अपने साध्य की सिद्धि करता है। धन पैदा करता है। इसी तरह मुमुक्षुओं के लिए एकही साध्य है / वह साध्य है मुक्ति प्राप्त करना / ज्ञानसे, ध्यानसे, क्रियासे, तपसे-किसी भी तरहसे अपने साध्य का साधन करले ना चाहिए / और एक की उपासना करते दूसरे की निंदा नहीं करना चाहिए। इसलिए हे भव्यो ! तुम वीतराग प्रमु की आज्ञा रूपिणी रस्सी को अपने हाथ में रक्खो / उससे तुम सारी वस्तुओं को बाँध सकोगे और अपने साध्य को सिद्ध कर सकोगे। श्री आवश्यक नियुक्ति की अमूल्य गाथाएँ क्या कहती हैं ?