________________ ( 333 ) कर्मकृत हैं / ये किसी के शरण नहीं हो सकते हैं। सूत्रकार भी यही बात कहते हैं: अब्भागमितं मि वा दुहे अहवा उक्कमिते भवंतिर / एगस्स गतीय आगती विदुमंता सरणं न मन्नइ // 17 // सव्वे सयकम्म कप्पिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणो / हिंडंति भयाउला सढा जाइजरामरणेहिं भिद्रुता // 18 // भावार्थ-पूर्वोपार्जित असातावेदनीय कर्म के ज़ोर से दुःख आते समय, आयुष्य कर्म-चाहे वह किसी कारण से क्यों न हो-क्षीण होते समय और मृत्यु के समय विद्वान् विचार करते हैं कि,-जीव अपने कृत कर्मों को अकेला ही भोगता है / गति और आगति भी कर्मानुसार वह अकेला ही भोगता है / धन, माल, माता, पिता, पुत्र और परिवार कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है / केवल मोहनीय कर्म के ज़ोरसे जीव अशरण को शरण मानता है / जानकार पुरुष धनादि को शरण नहीं मानते हैं। सब जीव अपने कर्मों के अनुसार एकेन्द्रियादि योनियों में परिभ्रमण करते हैं / वहाँ अवक्तव्य दुःखों के द्वारा वे दुःखी हो भयाकुल बन, जहाँ तहाँ भटकते फिरते हैं / इसी तरह जाति, बुढापा और मरणादि से उपद्रवित हो कर मूर्ख पीडित होते हैं। दुःख के समय हरेक जीव प्रभु को याद करता है; संसार को असार समझता है; त्यागियों को धन्यवाद देता है और त्याग