________________ प्रकरण तीसरा जीव अनादिकाल से संसारचक्र में परिभ्रमण कर रहे हैं। वे उसमें अपने अपने कर्मानुसार कईवार विनय, विोक और विद्या आदि सद्गुण प्राप्त करते हैं, और कईवार चोरी, जारी और अन्यायादि दुर्गुण पाते हैं। उन्हीं के परिणाम स्वरूप उनको शुभ गति और दुर्गति मिलती है। इसतरह से वे चार गति रूप विशाल बाजार के अंदर व्यापारी बन, नये नये वेष धारण करते हैं। सेठ या मुनीम, बेचनेवाले या खरीदनेवाले, वाह्य या वाहक, रोगी या निरोगी; शोकी या प्रसन्ना सन्तप्त या सन्तुष्ट; सुरूप या कुरूप; धनी या निर्धन, वैरागी या सरागी; विषयी या संयमी; लोभी या निर्लोभी मानी या सरल; मायाचारी या शुद्ध हृदयी; और मोही या निर्माही आदि भिन्न भिन्न अवस्थाएँ जीवों की दिखाई देती हैं / मगर वस्तुतः तो इनमें से, उनका, कुछ भी सच्चा स्वरूप नहीं है।