________________ ( 341) त्याग कर / आत्मश्रेय के लिए स्वनिंदा कर / मब जीवों को अपने कृत कर्मानुसार फल मिलता है / समय उत्तम है / गया ममय फिरसे आनेवाला नहीं है। इसी बात को पुष्ट करने के लिए सूत्रकार फिर कहते हैं: इणमेव खण वियाणिया णो सुलभ बोहिं च आहितं / . एवं सहिए हियासए आहिनिणे इणमेव सेसगा // 19 / / अभर्विसु पुरावि भिखु वे आएमावि भवंति सुव्वता / एयाई गुणाई आहुते कासवस्स्स अणुधम्मचारिणो // 20 // भावार्थ-प्राप्त समय को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सुंदर समझो / सम्यग्दर्शन की प्राप्ति सुलभ नहीं है। ऐसा श्रीऋषभदेव भगवान फर्माते हैं / इसलिए, ज्ञान, दर्शन और चारित्रधारी मुनि उत्पन्न परिसहों को सहन करे / ( श्रीऋषभदेवस्वामी के समान अन्य तेईस तीर्थकर भी इस बात को कहते हैं।) (19) हे साधुओ! पूर्वकाल में जो प्रधान व्रतधारी जिनेश्वर होगये हैं, उन्होंने और भविष्य में होनेवाले तमाम प्रधान व्रतधारी जिनेश्वरोंने उक्त चारित्र के गुण बताये हैं। सबका सिद्धान्त यही है कि,-" ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना ही मुक्ति का मार्ग है। (यानि तीर्थंकरों की देशनाओं में भेद नहीं है / अल्पज्ञों की कल्पनाओं में भेद है ) // 20 // द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप अति उत्तम समय प्राप्त