________________ ( 299 ) कर वापिस उत्तम कुल में उत्पन्न होते हैं। लक्ष्मी से दान हो सकता है और दान से पुण्य का बंध होता है। फिर 'पुण्यसे लक्ष्मी और लक्ष्मी से दान ' इस तरह परम्परा से शुभ योग से मुक्ति भी मिलती है। इसी तरह चारित्र रत्न से स्वर्ग, स्वर्ग से मनुष्य भव, वहाँ फिर चारित्रधर्म, चारित्रधर्म से कर्मों की निर्जरा और क निर्जरा से मुक्ति सुख की प्राप्ति होती है। महापुरुष वास्तविक सुख को पाते हैं और अल्प सत्ववाले हायवरा कर अपना जन्म गँवाते हैं। वह दशा कृपण को नहीं छोड़ती है / शायद काकतालीय न्याय से उसे रत्न की प्राप्ति हो भी जाती है तो वह थोड़े ही में उसको खो बैठता है। यहाँ हम एक उदाहरण देंगे। "किसी मनुष्य को अनायास ही चिन्तामणि रत्न मिळगया। मगर उसको उसने नहीं पहिचाना, तो भी उसके जोरसे उस मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूर्ण होने लगी। एक रत्न का अधिष्ठाता देव परीक्षा के लिए कौए का रूप धारण कर वहाँ गया जहाँ वह आदमी अपने एक मित्र के साथ चौपड़ खेल रहा था। वहाँ जाकर वह खराब शब्द बोलने लगा। निर्माग्य शिरोमणी उस रत्न प्राप्त मनुष्यने कौए को उड़ाना चाहा मगर वह नहीं उड़ा, तब उसने अपने हाथ में चिन्तामणि रत्न था उसको कौए पर फैंका / कौवा उसको लेकर चला गया। परिणाम यह हुआ कि उसके किये हुए विचार