________________ ( 304 ) विषय जीवों के लिए विष से भी अधिक दुःख देनेवाला है। यह धर्म का नाश करता है; चारित्ररत्न की प्राप्ति नही होने देता है; ज्ञानगुण का लोप करता है; दर्शन शुद्धि में विघ्न डालता है; कीर्तिलता को जला देता है। कुल में कलंक लगाता है; व्यवहार में लम्पटता का पद दिलाता है और अन्त में सर्व नाश के रस्ते लगाता है / विशेष क्या कहें, विषय मनुष्य के सारे पुरुषार्थों को नष्ट कर देता है। विषयी बननेवाला चाहे स्त्री हो या पुरुष-ये सबके साथ एकसा व्यवहार करता है। इसीलिए तत्ववेत्ताओंने शास्त्रों में लिखा है कि,"हे भव्य, यदि तू संसाररूपी अरण्य को छोड़ कर मुक्ति नगर में जाना चाहता है तो मार्ग में आनेवाले विषय रूपी वृक्ष के नीचे क्षणवार के लिए भी विश्राम न करना / क्योंकि विषयरूपी विषवृक्ष की साया थोड़े ही समय में बहुत ज्यादा फैल जाती है। इतनी बढ़ जाती है, कि उसमें से मनुष्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है। विषयासक्त जीव रातदिन आतरौद्र ध्यान में लिपा रहते हैं। उस को अष्टमी, चतुर्दशी या एकादशी किसी का भी ज्ञान नहीं रहता / तप, जप, देवपुजा, गुरुभक्ति, सामायिक और प्रतिक्रमण आदि क्रियाकांड विषयी मनुष्य को विडंबना रूप लगते हैं। उसे गुरुशिक्षा दावानल सी जान पड़ती है और शास्त्रश्रवण उसे शूल के समान लगता है / विशेष क्या कहें ? वह चिरकाल तक पाछेहुए चारित्र रत्नको को भी खो देता है और लज्जा को ताक में रखकर