________________ ( 314 ) . जो मनुष्य आचार को पालता है वही कमी अनर्थ नहीं करता है। नास्तिक नहीं बनता है; दूसरे को अनर्थ करनेवाला नहीं बनाता है और आत्मकल्याण से विमुख भी नहीं होता है। नास्तिक के वचनों का निराकरण / पहिले शास्त्रकार नास्तिकों को इसतरह का उपदेश देते हैं:अदक्खु व दक्खुवाहियं सदहसु अदक्खुदसण / हंदि हु सुनिरुद्भदंसणे मोहणिजेण कडेण कम्मुणा // 11 // दुक्खी मोहे पुणो पुणो निव्वीदज्जसि लोगपूयणं / एवं सहिते हियासहे आयुतुलं पाणेहिं संजए // 12 // भावार्थ-कृत मोहनीय कर्मद्वारा तेरा विशुद्ध दर्शन रुका हुआ है। इसी लिए तू असर्वज्ञदर्शनानुयायी बना है और इसी लिए सूत्रकारने ' हे अंधतुल्य ! ' शब्द से तुझ को संबोधन किया है। अब भी तू सर्वज्ञ के आगम को प्रमाण कर, यानी सर्वज्ञ के आगम को मान / दुखी मनुष्य मोह में पड़ता है; मोहविकल होकर संसार में परिभ्रमण करता है; बार बार मोह और मोह से दुःख होता है। इसी लिए मोह को छोड़ कर वह लोकपूजा में मुग्ध नहीं होता है / सहित, यानी ज्ञानादि गुण सहित, और संयमी हो वह सब प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है