________________ ( 319) न करे, न पूजे, न सम्मान करे तो केवलज्ञान की आशातना हो / गृहस्थी चाहे कैसा ही ज्ञानी हो जाय भी, वह गुरुपद के योग्य नहीं होता है / वह धर्मलाम की आशिस भी नहीं दे सकता है। जब वह साधु का वेष धारण करता है, तब ही वह गुरुपद के और धर्मलाभ के योग्य होता है / श्रावक प्रतिमाधारी हो, साधु के समान आचार पालता हो और भिक्षा आहार लेता हो, तो भी वह धर्मलाभ नहीं दे सकता है। धमेलाभ की शुभाशिस-जो न स्वधर्म को हानि करनेवाली हो और न दूसरे को हानि करनेवाली है-साधु ही देते हैं। मगर वर्तमान में कई जैन नामधारी विचारे धर्मलाभ देते डरते हैं। कई शास्त्रों के परिचय से कुछ समझना सीखे हैं; प न्तु वे बिचारे अंध परम्परा में पड़े हुए हैं। इसलिए साढेचार अक्षर भी नहीं बोल सकते हैं। और कई तो धर्मलाभ को-जिसको प्रत्येक आचार्यने सन्मान दिया है-निंदा करते हैं। वे बिचारे कर्म कीचड़ में डूबे हुए हैं। सूत्रों की टीकाओं में स्थान स्थान पर धर्मलाभ आया है। उसके अक्षर स्फुट हैं / दशवकालिक सूत्र के पिंडेषणाध्ययन की 18 वीं गाथा की टीका में सहेतुक धर्मलाभ देना कहा है। ठाणांग सूत्र की वृत्ति के तीसरे अध्ययन के तीसरे उद्देश में साधुने धर्मलाम दिया / / यह कथन है / उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में अरति परिसह के कथानक में 'महासद्देण धम्मलाभिआ' आदि स्पष्ट पाठ