________________ ( 298) शाली को ही मिलता है। यह बात अगली गाथा द्वारा बताई . जाती है। अग्गं वणिएहिं आहियं धारंति राइणिया इह / एवं परमा महत्वया अक्खायाउ सराइमोयणा // 3 // भावार्थ-जैसे व्यापारी लोग देशान्तर से अमूल्य रत्नों को लाकर राजा, महाराजा या सेठ, साहुकारों को भेट करते हैं और फिर राजादि उन रत्नों का उपभोग करते हैं। इसी तरह आचार्य महारान के बताये हुए परम रत्नभूत रात्रिभोजन विरमण व्रत सहित पंच महाव्रतको निकटभवी धीर पुरुष ही धारण करसकते हैं / और अल्पसत्वी मनुष्य तो तुच्छ पदार्थों में ही मुग्ध हो जाते हैं। जे इह सायाणुगा नरा अन्झोववन्ना कामेहिं मुच्छिया / किवणेण समं पगमिया न विजाणंति समाहिमाहिअं // 4 // भावार्थ-जो पुरुष इस असार संसार में ऋद्धि, रस और सातागारव में आसक्त और विषय रस में मग्न होकर धीरे 2 ढीठ बनते हैं, वे कृपण की दशा को अनुसरण करनेवाले वीतराग भगवान की बताई हुई समाधि से अनान होते है। . तीसरी गाथा में महान सत्वधारी और चौथी गाथा में अल्प सत्वधारी प्राणियों की बात बताई गई है। महापुरुष सब ही जगह विजयी और सुखी होते हैं / वे अमूल्य रत्नादि का भोग