________________ ( 285) ग्रंथ को लिखने से जो पुण्य हुआ है; उससे भव्य जीव सुखी होवें / " पुण्य और पाप के लिए चतुर्भगी इस तरह बताई गई है:पुण्यानुबंधी पुण्य, पापानुबंधी पुण्य, पापानुबंधी पाप और पापानुबंधी पुण्य / जैसे अध्यवसायों से- भावों से क्रिया होती है वैसा ही कर्मबंध होता है / इसीलिए प्रभुने बार बार साधुओं को उपदेश दिया है कि-" तुम कभी टंटा रखेड़ा न करो / सदा अप्रमत्त भावों में विचरण करो; इसी से आत्म-कल्याण होगा। आत्मकल्याण बड़ी कठिनता से होता है / " अब उद्देशे की समाप्ति करते हुए सूत्रकार कहते हैं:णहि णूण पुरा अणुस्सुतं अदुवा तं तह णो समुठ्ठियं / [अदुवा अवितहणो अणुट्ठियं ] (इति पाठान्तरम् ) मुणिणा सामाइ आहितंनाएणं जगसव्वदंसिणा // 31 // एवं मत्ता महंतरं धम्ममिणं सहिया वहू जणा। गुरुणो छंदाणुवत्तगा विराया तिन्न महोधमाहित्तिं // 32 // भावार्थ-समभाव लक्षणवाला सामायिक (चारित्र)-जिसको सर्वदर्शी और सर्वज्ञ श्री वीतरागने बताया है-पूर्वकाल में कभी प्राणियों के सुनने में नहीं आया। यदि किसीने सुना भी होगा तो उसने यथास्थित उसका अनुष्ठान नहीं किया। (पाठान्तरयथार्थ अनुष्ठान नहीं होने से आत्म-हित होना प्राणियों के लिए दुर्लभ है।) इसप्रकार आत्महित दुर्लभ समझेकर मनुष्यत्व