________________ (284 ) क्रियाओं में चित्त लगा सकता है। वर्तमानकाल की स्थिति को देखकर कोई मध्यस्थ पुरुष शंका करेगा कि,-सुखी पुरुष कभी धर्म नहीं करते हैं। जितने धर्म करनेवाले हैं वे सब दुःखी हैं। अपने दुःख को मिटाने के लिए वे धर्म करते हैं।" मगर हम जड पदार्थों पर प्रेम करनेवाले और जगत को सुखी दिखनेवालों को सुखी नहीं बताते हैं / हम तो उसी को वास्तविक सुखी बताते हैं जो संकल्प विहीन होता है / और वही धार्मिक सुखी पुरुष धर्म-क्रिया करने में विजयी बनता है। इसीलिए तो आचार्योंने पुण्यानुबंधी पुण्य को कथंचित् मुक्ति का कारण माना है / साक्षात् मुक्ति का कारण तो पुण्य पाप का अभाव है। ज्ञान दशन और चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना करते कर्म की निर्जरा होती है / तीर्थकरों के पुण्यानुबंधी पुण्य होता है, इसलिए सामान्यकेवली भी उनके समवसरण में आते हैं / वे कृतकृत्य होते हैं; तीर्थकर के समान ज्ञानवान होते हैं, तो भी व्यववहारनय का मानते हैं / केवली की परिषद के आगे छद्मस्थ भाववाले गणघर बैठते हैं / इसके दो कारण हैं। प्रथम तो वे ही प्रश्नोत्तर करनेवाले होते हैं दूसरे वे पदस्थ होते हैं। इस सारे व्यवहार का कारण पुण्यानुबंध है। कई ग्रंथकार ग्रंथ के अन्त में स्पष्ट शब्दो में लिखते हैं कि-"इस ग्रंथ को लिखने से मुझ को जो पुण्यबंध हुआ है उससे मेरे अनादिकाल के वास्तविक शत्रु राग, द्वेषादि नष्ट होवें।" कई आचार्य लिखते हैं कि-" इस