________________ (280) वाला और वशीकृतन्द्रिय-वश में की हैं इन्द्रिया जिसने होकर पृथ्वीतल में विचरण करे / क्योंकि आत्महित बहुत ही दुर्लभ है / माया महादेवीने अनन्त जीवों का भोग लिया है / तो मी वैसी ही तृष्णावाली है। श्रीयशोविजयजी महाराज आठवें पापस्थान का वर्णन करते हुए कहते हैं: केशलोच मलधारणा, सुणो संताजी, भूमिशय्या व्रतयाग, गुणवंताजी; सुकर सकंल छे साधुने, सुणो संतानी, दुक्कर मायात्याग, गुणवंतानी / नयन वचन आकार, सुणो संतानी, गोपन मायावंत, गुणवंताजी; जेह करे असतीपरे, सुणो संतानी, ते नहि हितकर तंत, गुणवंतानी / इत्यादि कथन का दिवेकी पुरुषों को विचार करना चाहिए। केशलोच को कई वैराग्य रंग में रंगे हुए अन्तःकरणवाले भी नहीं कर सकते हैं / मलधारण अति दुःसह है / भूमि पर सोना और व्रत को पालना / ये सब बातें कठिन हैं। मगर इनका करना सरल बताया है / परन्तु माया को छोड़ना तो बहुत ही कठिन बताया गया है। बात है भी ठीक / आत्मा का अनादि शत्रु मोहराजा अपने मंत्री मान को मनुष्य रूपिणी अपनी